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Rudrashtadhyayi Path 1 | शुक्लयजुर्वेद रुद्राष्टाध्यायी प्रथम पाठ

Rudrashtadhyayi Path 1
चमत्कारी रुद्राष्टाध्यायी प्रथम हिन्दी पाठ।

भगवान शिव की कृपा और उनके दर्शन प्राप्त करने के लिए, अवश्य ही सुनें रुद्राष्टाध्यायी प्रथम पाठ।

Rudrashtadhyayi Path 1
रुद्राष्टाध्यायी प्रथम पाठ

मङ्गलाचरणम्

वन्दे सिद्धिप्रदं देवं गणेशं प्रियपालकम् ।
विश्वगर्भं च विघ्नेशं अनादिं मङ्गलं विभूम् ॥

अथ ध्यानम् –

ध्यायेन्नित्यं महेशं रजतगिरिनिभं चारु चन्द्रवतंसम् ।
रत्नाकल्पोज्ज्वलाङ्गं परशु मृगवरं भीतिहस्तं प्रसन्नम् ॥
पद्मासीनं समन्तात् स्तुतममरगणैर्व्याघ्रकृतिं वसानम् ।
विश्वाद्यं विश्ववन्द्यं निखिलभयहरं पञ्चवक्त्रं त्रिनेत्रम् ॥

Rudrashtadhyayi Path 1 | प्रथमोऽध्यायः पाठ

ॐ गणानां त्वा गणपतिं हवामहे प्रियाणां त्वा प्रियपतिं हवामहे निधीनां त्वा

निधीपतिं हवामहे वसो मम ।

आऽहमजानिगर्भधमात्त्वमजाऽसि गर्भधम् ॥ १॥

गायत्रीत्रिष्टुब्जगत्यनुष्टुप्पङ्क्त्यासह ॥

बृहत्युष्णिहाककुप्सूचीभिः शम्यन्तु त्वा ॥ २॥

द्विपदायाश्चतुषपदास्त्रिपदायाश्चषट्पदाः ।

विच्छन्दा याश्च सच्छन्दाः सूचीभिः शम्यन्तु त्वा ॥ ३॥

सहस्तोमाः सहछन्दस आवृतः सहप्रमाः ऋषयः सप्तदैव्याः ॥

पूर्वेषां पन्थामनुदृश्य धीरा अन्यालेभिरे रथ्यो न रश्मीन् ॥ ४॥

यज्जाग्रतो दूरमुदैति दैवं तदु सुप्तस्य तथैवैति ॥

दूरङ्गमं ज्योतिषां ज्योतिरेकं तन्मे मनः शिवसङ्कल्पमस्तु ॥ ५॥

येन कर्माण्यपसो मनीषिणो यज्ञे कृण्वन्ति विदथेषु धीराः ॥

यदपूर्वं यक्षमन्तः प्रजानां तन्मे मनः शिवसङ्कल्पमस्तु ॥ ६॥

यत्प्रज्ञानमुतचेतो धृतिश्च यज्ज्योतिरन्तरमृतं प्रजासु ॥

यस्मान्न ऋते किञ्चन कर्म क्रियते तन्मे मनः शिवसङ्कल्पमस्तु ॥ ७॥

येनेदं भूतं भुवनं भविष्यत्परिगृहीतममृतेन सर्वम् ॥

येन यज्ञः स्तायते सप्तहोता तन्मे मनः शिवसङ्कल्पमस्तु ॥ ८॥

यस्मिन् ऋचः सामयजूंषि यस्मिन्प्रतिष्ठिता रथनाभाविवाराः ॥

यस्मिन् चित्तं सर्वमोतं प्रजानां तन्मे मनः शिवसङ्कल्पमस्तु ॥ ९॥

सुषारथिरश्वानिव यन्मनुष्प्यान्नेनीयतेऽभीशुभिरार्वाजिनऽइव ॥

हृत्प्रतिष्ठं यदजिरं जविष्ठं तन्मे मनः शिवसङ्कल्पमस्तु ॥ १०॥

Rudrashtadhyayi Path 1 Hindi Meaning 
भावार्थः शुक्लयजुर्वेद रुद्राष्टाध्यायी प्रथम पाठ

श्रीगणेश जी के लिए नमस्कार है। समस्त गणों का पालन करने के कारण गणपतिरूप में प्रतिष्ठित आप को हम आवाहित करते हैं, प्रियजनों का कल्याण करने के कारण प्रियपतिरुप में प्रतिष्ठित आपको हम आवाहित करते हैं और पद्म आदि निधियों का स्वामी होने के कारण निधिपतिरूप में प्रतिष्ठित आपको हम आवाहित करते हैं। हे हमारे परम धनरूप ईश्वर ! आप मेरी रक्षा करें। मैं गर्भ से उत्पन्न हुआ जीव हूँ और आप गर्भादिरहित स्वाधीनता से प्रकट हुए परमेश्वर हैं। आपने ही हमें माता के गर्भ से उत्पन्न किया है।

हे परमेश्वर ! गान करने वाले का रक्षक गायत्री छन्द, तीनों तापों का रोधक त्रिष्टुप छन्द, जगत् में विस्तीर्ण जगती छन्द, संसार का कष्ट निवारक अनुष्टुप छन्द, पंक्ति छन्द सहित बृहती छन्द, प्रभातप्रियकारी ऊष्णिक् छन्द के साथ ककुप् छन्द – ये सभी छन्द सुन्दर उक्तियों के द्वारा आपको शान्त करें।

हे ईश्वर ! दो पाद वाले, चार पाद वाले, तीन पाद वाले, छ: पाद वाले, छन्दों के लक्षणों से रहित अथवा छन्दों के लक्षणों से युक्त वे सभी छन्द सुन्दर उक्तियों के द्वारा आपको शान्त करें। प्रजापति संबंधी मरीचि आदि सात बुद्धिमान ऋषियों ने स्तोम आदि साम मन्त्रों, गायत्री आदि छन्दों, उत्तम कर्मों तथा श्रुति प्रमाणों के साथ अंगिरा आदि अपने पूर्वजों के द्वारा अनुष्ठित मार्ग का अनुसरण करके सृष्टि यज्ञ को उसी प्रकार क्रम से संपन्न किया था जैसे रथी लगाम की सहायता से अश्व को अपने अभीष्ट स्थान की ओर ले जाता है।

जो मन जगते हुए मनुष्य से बहुत दूर तक चला जाता है, वही द्युतिमान मन सुषुप्ति अवस्था में सोते हुए मनुष्य के समीप आकर लीन हो जाता है तथा जो दूर तक जाने वाला और जो प्रकाशमान श्रोत आदि इन्द्रियों को ज्योति देने वाला है, वह मेरा मन कल्याणकारी संकल्पवाला हो। कर्मानुष्ठान में तत्पर बुद्धि संपन्न मेधावी पुरुष यज्ञ में जिस मन से शुभ कर्मों को करते हैं, प्रजाओं के शरीर में और यज्ञीय पदार्थों के ज्ञान में जो मन अद्भुत पूज्य भाव से स्थित है, वह मेरा मन कल्याणकारी संकल्प वाला हो।

जो मन प्रकर्ष ज्ञानस्वरुप, चित्तस्वरुप और धैर्यरूप है, जो अविनाशी मन प्राणियों के भीतर ज्योति रूप से विद्यमान है और जिसकी सहायता के बिना कोई कर्म नहीं किया जा सकता, वह मेरा मन कल्याणकारी संकल्प वाला हो। जिस शाश्वत मन के द्वारा भूतकाल, वर्तमानकाल और भविष्यकाल की सारी वस्तुएँ सब ओर से ज्ञात होती हैं और जिस मन के द्वारा सात होता वाला यज्ञ विस्तारित किया जाता है, वह मेरा मन कल्याणकारी संकल्प वाला हो।

जिस मन में ऋग्वेद की ऋचाएँ और जिसमें सामवेद तथा यजुर्वेद के मन्त्र उसी प्रकार प्रतिष्ठित हैं, जैसे रथचक्र की नाभि में अरे (तीलियाँ) जुड़े रहते हैं, जिस मन में प्रजाओं का सारा ज्ञान ओतप्रोत रहता है, वह मेरा मन कल्याणकारी संकल्प वाला हो। जो मन मनुष्यों को अपनी इच्छा के अनुसार उसी प्रकार घुमाता रहता है, जैसे कोई अच्छा सारथी लगाम के सहारे वेगवान घोड़ों को अपनी इच्छा के अनुसार नियन्त्रित करता है, बाल्य, यौवन, वार्धक्य आदि से रहित तथा अतिवेगवान जो मन हृदय में स्थित है, वह मेरा मन कल्याणकारी संकल्प वाला हो।

इति रुद्राष्टाध्यायी प्रथमोऽध्यायः
Rudrashtadhyayi Path 1 End

Rudrashtadhyayi Path 1 Hindi

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