Manyu Suktam, मन्यु सूक्तं

मन्यु सूक्तं/Manyu Suktam

मन्यु सूक्तं/Manyu Suktam

अव ज्यामिव धन्वनो मन्युं तनोमि ते हृदः ।

यथा संमनसो भूत्वा सखायाविव सचावहै ।।

अर्थ- मैं तेरे हृदय से मन्यु का अवतनन इस प्रकार करता हूं जैसे धनुष पर से ज्या का अवरोपण किया जाता है । ऐसा करने से हम दोनों एक मन हो सकेंगे और सखाओं की भांति व्यवहार कर सकेंगे । इस मन्त्र से संकेत मिलता है कि हृदय में स्थित प्राण उन प्राणों में से हैं जिन पर मन का आरोपण करके, उन्हें मन द्वारा सममिति प्रदान करके मन्यु बनाया जा सकता है । लेकिन इस मन्यु को भी हटाना है ।- Manyu Suktam

जिह्वा ज्या भवति कुल्मलं वाङ्नाडीका दन्तास्तपसाभिदिग्धाः।

तेभिर्ब्रह्मा विध्यति देवपीयून् हृद्बलैर्धनुभिर्देवजूतैः।।

अर्थ- इस मन्त्र के स्वामी गंगेश्वरानन्द कृत भाष्य में कहा गया है कि ब्रह्मा देवपीयुओं अर्थात् देवों को हानि पहुंचाने वालों का वेधन इस प्रकार करता है कि हृद्बल उसके धनुष बन जाते हैं, जिह्वा ज्या बन जाती है, वाक् कुल्मल अर्थात् धनुर्दण्ड बन जाती है, दन्त नालीक नामक आयुध बन जाते हैं । इस मन्त्र से संकेत मिलता है कि जब हृदय धनुष हो तो जिह्वा उसकी ज्या हो सकती है ।- मन्यु सूक्तं

जिह्वाया अग्रे यो वो मन्युस् तं वो वि नयामसि ।।

जिह्वाग्र पर रसों का आस्वादन करने वाले तन्तु विद्यमान होते हैं ।

अर्थ- शिश्नाग्र और जिह्वाग्र का परस्पर सम्बन्ध कहा जाता है । और तो और, जिस टेस्टोस्टेरोन का ऊपर उल्लेख किया गया है, चिकित्सा साहित्य में कहा गया है कि उसके कारण अतिरिक्त जिह्वाग्र तन्तुओं का विकास भी किया जा सकता है । इसका यह तात्पर्य भी हो सकता है कि जब किसी रुग्णता के कारण मुख का स्वाद खराब हो जाता है, उसमें भी यही हारमोन उत्तरदायी हो सकता है ।

धनुष और उसकी ज्या के इन उल्लेखों को तब समझा जा सकता है जब यह ज्ञान हो कि अध्यात्म में धनुष और उसकी ज्या से क्या तात्पर्य हो सकता है । जब कुण्डलिनी शक्ति जाग्रत होकर ऊर्ध्वमुखी हो जाती है, उस समय की कुण्डलिनी की अवस्था को ज्या और शरीर को धनुष का नाम दिया जा सकता है । ज्या को गुण भी कहते हैं । अतः जब धनुष ज्यारहित होता है तो उसका अर्थ होगा कि वह सत्, रज व तम नामक तीन गुणों से रहित अवस्था में है धनुष और उसकी ज्या का एक स्वरूप नाग रूप में भी है । लेकिन मन्यु के इस रूप में विष विद्यमान रहेगा जिससे मुक्ति अपेक्षित है ।

असितस्य तैमातस्य बभ्रोरपोदकस्य च ।

सत्रासाहस्याहं मन्योरव ज्यामिव धन्वना वि मुञ्चामि रथाँ इव ।।

अर्थ- इस मन्त्र में कहा जा रहा है कि मैं असित आदि विभिन्न सर्पों के मन्युओं से तुझे वैसे ही मुक्त करता हूं जैसे धनुष से ज्या का मोचन किया जाता है अथवा जैसे रथों से अश्वों को अलग किया जाता है ।

मन्योर्मनसः शरव्या जायते या तया विध्य हृदये यातुधानान् ।।

अर्थ-  मन्यु युक्त मन से जो शरव्या या शर उत्पन्न होता है, उससे यातुधानों के हृदय का वेधन करो । इस प्रकार मन्यु के इन मन्त्रों में किसी न किसी प्रकार से हृदय का उल्लेख आ रहा है । यह भी स्पष्ट हो रहा है कि जहां मन्यु विद्यमान होगा, वहां वह धनुष की ज्या की भांति काम करेगा । यदि देह में स्थित मन्यु की बात करें तो वह प्रत्येक तन्तु में तनाव उत्पन्न करके उसको धनुष का स्वरूप देगा । अतः यह अपेक्षित है कि जहां जहां भी दूषित मन्यु के कारण धनुष बना हुआ है, उसे दूर करके सत्य मन्यु की, स्तोत्र की प्रतिष्ठा की जाए ।