Bhumi Suktam, भूमि  सूक्तम्

भूमि  सूक्तम्/Bhumi Suktam

भूमि  सूक्तम्/Bhumi Suktam

सत्यं बृहदृतमुग्रं दी॒क्षा तपो ब्रह्म यज्ञः पृथिवीं धारयन्ति।

सा नो भूतस्य भव्यस्य पत्न्युरुं लोकं पृथिवी नः कृणोतु ॥१॥

अर्थ- सत्यकर्मी, सत्यज्ञानी, जितेन्द्रिय, ईश्वर और विद्वानों से प्रीति करनेवाले चतुर पुरुष पृथिवी पर उन्नति करते हैं। यह नियम भूत और भविष्यत् के लिये समान है ॥१॥- Bhumi Suktam

असबाध बध्यतो मानवाना यस्या उद्वतः प्रवतः समं बहु।

नानावीर्या ओषधीर्या बिभर्ति पृथिवी नः प्रथता राध्यतां नः ॥२॥

अर्थ- विचारशील मनुष्य पृथिवी पर ऊँचे, नीचे और सम स्थानों में विघ्नों को मिटाकर अन्न आदि पदार्थ प्राप्त करके कार्यसिद्धि करते जाते हैं ॥२॥

यस्या समुद्र उत सिन्धुरापो यस्यामन्न कृष्टयः संबभूवुः।

यस्यामिदं जिन्वति प्राणदेजत्सा नो भूमिः पूर्वपेये दधातु ॥३॥

अर्थ- जो मनुष्य समुद्र, नदी, कूप और वृष्टि के जल तथा अन्य खेती आदि से नौका, यान, कलायन्त्र आदि में अनेक प्रकार उपकार लेते हैं, वे सब जगत् को आनन्द देकर श्रेष्ठ पद पाते हैं ॥३॥- Bhumi Suktam

यस्याश्चतस्रः प्रदिशः पृथिव्या यस्यामन्न कृष्टयः संबभूवुः।

या बिभर्ति बहुधा प्राणदेजत्सा नो भूमिर्गोष्वप्यन्ने दधातु ॥४॥

अर्थ- जो मनुष्य सब ओर दृष्टि फैलाकर अन्न आदि पदार्थ प्राप्त करके सब प्राणियों की रक्षा करते हैं, वे इस भूमि पर गौ, बैल, अश्व आदि और अन्न आदि पदार्थों से परिपूर्ण रहते हैं ॥४॥ – Bhumi Suktam

यस्या पूर्वे पूर्वजना विचक्रिरे यस्या देवा असुरानभ्यवर्तयन्।

गवामश्वानां वयसश्च विष्ठा भगं वर्चः पृथिवी नो दधातु ॥५॥

अर्थ- जिस प्रकार पूर्वजों ने विघ्नों को हटाकर कर्तव्य करके ऐश्वर्य पाया है, इसी प्रकार मनुष्य पुरुषार्थ करके ऐश्वर्यवान् और प्रतापवान् होवें ॥५॥

विश्वभरा वसुधानी प्रतिष्ठा हिरण्यवक्षा जगतो निवेशनी।

वैश्वानर बिभ्रती भूमिरग्निमिन्द्रऋषभा द्रविणे नो दधातु ॥६॥ – भूमि  सूक्तम्

अर्थ- जो मनुष्य उद्योग करते हैं, वे भूपति होकर इस वसुधा पृथिवी पर सोना-चाँदी आदि की प्राप्ति से बली और धनी होकर सुख पाते हैं ॥६॥ – Bhumi Suktam

या रक्षन्त्यस्वप्ना विश्वदानी देवा भूमिं पृथिवीमप्रमादम्।

सा नो मधु प्रिय दुहामथो उक्षतु॒ वर्चसा ॥७॥

अर्थ- जो मनुष्य निरालसी और अप्रमादी होकर भूमि की रक्षा करते हैं, वे इस पृथिवी पर विज्ञानी और तेजस्वी होते हैं ॥७॥- भूमि  सूक्तम्

यार्णवेऽधि सलिलमग्र आसीद्या मायाभिरन्वचरन्मनी॒षिणः।

यस्या हृदयं परमे व्योमन्त्सत्येनावृतममृतं पृथिव्याः।

सा नो भूमिस्त्विषिं बल राष्ट्रे दधातूत्तमे ॥८॥- भूमि  सूक्तम्

अर्थ- सृष्टि के आदि में जल के मध्य यह पृथिवी बुदबुदे के समान थी, वह आकाश में ईश्वरनियम से दृढ़ होकर अनेक रत्नों की खानि है। पहिले विचारवानों के समान सब मनुष्य पराक्रम से पृथिवी की सेवा करके बड़े राज्य के भीतर तेजस्वी और बली होकर बढ़ती करें ॥८॥- Bhumi Suktam

यस्यामापः परिचराः समानीरहोरात्रे अप्रमादं॒ क्षरन्ति।

सा नो भूमिर्भूरिधारा पयो दुहामथो उक्षतु वर्चसा ॥९॥- भूमि  सूक्तम्

अर्थ- मनुष्यों को योग्य है कि समदर्शी परोपकारी महात्माओं के समान दृढ़चित्त होकर परस्पर सेवा करते हुए पृथिवी पर अन्न आदि के लाभ से बल वीर्य बढ़ावें ॥९॥- Bhumi Suktam

यामश्विनावमिमातां विष्णुर्यस्या विचक्रमे।

इन्द्रो यां चक्र आत्मनेऽनमित्रा शचीपतिः।

सा नो भूमिर्वि सृजता माता पुत्राय मे पयः ॥१०॥- भूमि  सूक्तम्

अर्थ- जिस पृथिवी को दिन और राति अपने गुणों से उपजाऊ बनाते हैं, जिस को सूर्य अपने आकर्षण, प्रकाश और वृष्टि आदि कर्म से स्थिर रखता है, और जिस पर यथार्थवक्ता, यथार्थकर्मा और यथार्थज्ञाता पुरुष विजय पाते हैं, उस पृथिवी को उपयोगी बनाकर प्रत्येक मनुष्य सब का हित करे ॥१०॥- Bhumi Suktam

गिरयस्ते पर्वता हिमवन्तोऽरण्यं ते पृथिवि स्योनमस्तु।

बभ्रु कृष्णा रोहिणी विश्वरूपा ध्रु॒वा भूमि पृथिवीमिन्द्रगुप्ताम्।

अजीतोऽहतो अक्षतोऽध्यष्ठां पृथिवीमहम् ॥११॥

अर्थ- मनुष्य कला, यन्त्र, यान, विमान आदि से दुर्गम्य स्थानों में निर्विघ्न पहुँचकर पृथिवी को उपजाऊ बनावें ॥११॥ – Bhumi Suktam

यत्ते मध्य पृथिवि यच्च नभ्य यास्त ऊर्जस्तन्वः सबभू॒वुः।

तासु नो धेह्यभि नः पवस्व माता भूमिः पुत्रो अह पृथिव्याः

पर्जन्यः पिता स उ नः पिपर्तु ॥१२॥- भूमि  सूक्तम्

अर्थ- मनुष्य नीतिविद्या, भूगर्भविद्या, भूतलविद्या और मेघविद्या आदि में निपुण होकर पृथिवी को उपकारी और सुखदायक बनावें ॥१२॥- Bhumi Suktam

यस्या वेदि परिगृह्णन्ति भूम्या यस्या यज्ञ तन्वते विश्वकर्माणः।

यस्या मीयन्ते स्वरवः पृथिव्यामूर्ध्वाः शुक्रा आहुत्याः पुरस्तात्।

सा नो भूमिर्वर्धयद्वर्धमाना ॥१३॥- भूमि  सूक्तम्

अर्थ- मनुष्यों को उचित है कि कर्मकुशल लोगों के समान अपना कर्त्तव्य पूरा करके संसार में दृढ़ कीर्ति स्थापित करें ॥१३॥ – Bhumi Suktam

यो नो द्वेषत्पृथिवि यः पृतन्याद्योभिदासान्मनसा यो वधेन॑।

त नो भूमे रन्धय पूर्वकृत्वरि ॥१४॥

अर्थ- जो मनुष्य धर्म से सत्कारपूर्वक पृथिवी की रक्षा करते हैं, वे शत्रुओं को नाश कर सकते हैं ॥१४॥ – Bhumi Suktam

त्वज्जातास्त्वयि चरन्ति मर्त्यास्त्वं बिभर्षि द्विपद॒स्त्वं चतुष्पदः।

तवेमे पृथिवि पञ्च मानवा येभ्यो ज्योतिरमृत मर्त्येभ्य उद्यन्त्सूर्यो रश्मिभिरातनोति ॥१५॥

अर्थ- जो मनुष्य पृथिवी पर उत्पन्न होकर उद्योग करते हैं, वे सब प्राणियों की रक्षा करके सूर्य की पुष्टिकारक किरणों से वृष्टि आदि द्वारा सदा आनन्द पाते हैं ॥१५॥ – Bhumi Suktam

ता नः प्रजाः सं दुह्रतां समग्रा वाचो मधु पृथिवि धेहि मह्यम् ॥१६॥

अर्थ- जो मनुष्य वाणी की मधुरता अर्थात् सत्य वचन आदि से सब प्राणियों से उपकार लेते हैं, वे सुख पाते हैं ॥१६॥- Bhumi Suktam

विश्वस्वं मातरमोषधीना ध्रुवा भूमिं पृथिवीं धर्मणा धृताम्।

शिवां स्योनामनु चरेम विश्वहा ॥१७॥ – भूमि  सूक्तम्

अर्थ- मनुष्य धर्म के साथ भूमि का शासन करके समस्त उत्तम गुणों और पदार्थों से सुख प्राप्त करें ॥१७॥ – Bhumi Suktam

महत्सधस्थ महती बभूविथ महान्वेग एजथुर्वेपथुष्टे।

महास्त्वेन्द्रो रक्षत्यप्रमादम्।

सा नो भूमे प्र रोचय हिरण्यस्येव सदृशि मा नो द्विक्षत कश्चन ॥१८॥- भूमि  सूक्तम्

अर्थ- पुरुषार्थी पुरुष अनेक प्रयत्नों के साथ पृथिवी पर सब से मिलकर विद्या द्वारा सुवर्ण आदि धन प्राप्त करके तेजस्वी होते हैं ॥१८॥ – Bhumi Suktam

अग्निर्भूम्यामोषधीष्वग्निमापो बिभ्रत्यग्निरश्मसु।

अग्निरन्तः पुरुषेषु गोष्वश्वेष्वग्नयः ॥१९॥

अर्थ- ईश्वर नियम से पृथिवी में का अग्निताप अन्न आदि पदार्थों और प्राणियों में प्रवेश करके उन में बढ़ने तथा पुष्ट होने का सामर्थ्य देता है ॥१९॥

अग्निर्दिव आ तपत्यग्नेर्देवस्योर्वन्तरिक्षम्।

अग्नि मर्तास इन्धते हव्यवाहं॑ घृतप्रियम् ॥२०॥- भूमि  सूक्तम्

अर्थ- वह अग्नि ताप भूमि में सूर्य से आता है, तथा आकाश के पदार्थों में प्रवेश करके उन्हें बलयुक्त करता है। उस अग्नि को मनुष्य आदि प्राणी भोजन आदि से शरीर में बढ़ा कर पुष्ट और बलवान् होते हैं। तथा उसी अग्नि को हव्यद्रव्यों से प्रज्वलित करके मनुष्य वायु, जल और अन्न को शुद्ध निर्दोष करते हैं ॥२०॥ – Bhumi Suktam

अग्निवासाः पृथिव्यसितज्ञूस्त्विषीमन्त सशित मा कृणोतु ॥२१॥ – भूमि  सूक्तम्

अर्थ- जैसे भूमि भीतर और बाहिर सूर्यताप से बल पाकर अपने मार्ग पर बेरोक चलती रहती है, वैसे ही मनुष्य भीतरी और बाहिरी बल बढ़ाकर सुमार्ग में बढ़ता चले ॥२१॥- Bhumi Suktam

भूम्या देवेभ्यो ददति यज्ञं हव्यमरकृतम्।

भूम्या मनुष्या जीवन्ति स्वधयान्नेन मर्त्याः।

सा नो भूमिः प्राणमायुर्दधातु जरदष्टिं मा पृथिवी कृणोतु ॥२२॥

अर्थ- जिस प्रकार मनुष्य उत्तम पुरुषों से मिलकर श्रेष्ठ-श्रेष्ठ गुण प्राप्त करते और दूसरों को प्राप्त कराते हैं, उसी प्रकार हम उत्तम गुण प्राप्त करके अपना जीवन श्रेष्ठ बनावें ॥२२॥ –  Bhumi Suktam

यस्ते गन्धः पृथिवि सबभूव य बिभ्रत्योषधयो यमापः।

य गन्धर्वा अप्सरसश्च भेजिरे तेन मा सुरभि कृणु मा नो द्विक्षत कश्चन ॥२३॥- भूमि  सूक्तम्

अर्थ- गन्धवती पृथिवी का आश्रय लेकर अनेक प्रकार से सब प्राणी और सब लोक आकार धारण करके ठहरते हैं। मनुष्य उस पृथिवी के तत्त्वज्ञान से सब कार्य सिद्ध करके ऐश्वर्यवान् होवें ॥२३॥

यस्ते गन्धः पुष्करमाविवेश य सजभ्रुः सूर्याया विवाहे।

अमर्त्याः पृथिवि गन्धमग्रे तेन मा सुरभि कृणु मा नो द्विक्षत कश्चन ॥२४॥ – भूमि  सूक्तम्

अर्थ- पृथिवी का गन्ध अर्थात् अंश प्रविष्ट होकर पदार्थों को पुष्ट करता और सूर्य के ताप द्वारा देश-देशान्तरों में पहुँचता है। उस पृथिवी से तत्त्ववेत्ता लोग उपकार लेकर प्रसन्न होते हैं ॥२४॥- भूमि  सूक्तम्

यस्ते गन्धः पुरुषेषु स्त्रीषु पुसु भगो रुचिः।

यो अश्वे॑षु वीरेषु यो मृगेषूत हस्तिषु।

कन्यायां वर्चो यद्भूमे तेनास्माँ अपि स सृज मा नो द्विक्षत कश्चन ॥२५॥- भूमि  सूक्तम्

अर्थ- पृथिवी का आश्रय लेकर संसार के देहधारी मनुष्य आदि सब प्राणी और अन्तरिक्ष के तारागण आदि सब लोक स्थित हैं, वैसे ही मनुष्य सब प्रकार उपकारी और तेजस्वी होकर विघ्नों का नाश करें ॥२५॥

शिला भूमिरश्मा पासुः सा भूमिः संधृता धृता।

तस्यै हिरण्यवक्षसे पृथिव्या अकर नमः ॥२६॥

अर्थ- जिस भूमि पर अनेक बड़े-छोटे पदार्थ हैं और जिस में अनेक रत्न भरे हैं, उस पृथिवी के हित के लिये मनुष्य अन्न जल आदि पदार्थ खावें ॥२६॥

यस्यां वृक्षा वानस्पत्या ध्रुवास्तिष्ठन्ति विश्वहा।

पृथिवी विश्वधायस धृतामच्छावदामसि ॥२७॥

अर्थ- जिस पृथिवी पर हमारे उपकार के लिये फल फूल पत्र आदिवाले वृक्ष उत्पन्न होते हैं, उसकी सावधानी हम सदा करते रहें ॥२७॥

उ॒दीराणा उतासीनास्तिष्ठन्तः प्रक्रामन्तः।

पद्भ्या दक्षिणसव्याभ्या मा व्यथिष्महि भूम्याम् ॥२८॥

अर्थ- मनुष्य पृथिवी पर सावधान और स्वस्थ रहकर सदा सब को सुख देवें ॥२८॥

विमृग्वरीं पृथिवीमा वदामि क्षमा भूमि ब्रह्मणा वावृधानाम्।

ऊर्जं पुष्ट बिभ्रतीमन्नभागं घृतं त्वाभि नि षीदेम भूमे ॥२९॥

अर्थ- विज्ञानी लोग भूगर्भविद्या, भूतलविद्या आदि द्वारा भूमि को खोजकर अनेक प्रकार के उपकारी पदार्थ प्राप्त करके स्वस्थ पुष्ट होवें ॥२९॥

शुद्धा न आपस्तन्वे क्षरन्तु यो नः सेदुरप्रिये तं नि दध्मः।

पवित्रे॑ण पृथिवि मोत्पुनामि ॥३०॥

अर्थ- जैसे निर्मल जल से शरीर शुद्ध करके मल का नाश करते हैं, वैसे ही मनुष्य अन्तःकरण का मल दूर करके पृथिवी पर धार्मिक व्यवहार से आत्मा की शुद्धि करें ॥३०॥

यास्ते प्राचीः प्रदिशो या उदीचीर्यास्ते भूमे अधराद्याश्च पश्चात्।

स्योनास्ता मह्य चरते भवन्तु मा नि पप्तं भुवने शिश्रियाणः ॥३१॥

अर्थ- जो मनुष्य चलते-फिरते रहकर पुरुषार्थ करते रहते हैं, वे पृथिवी पर सब दिशाओं में सुख भोगते हैं ॥३१॥

मा नः पश्चान्मा पुरस्तान्नुदिष्ठा मोत्तरादधरादुत।

स्वस्ति भूमे नो भव मा विदन्परिपन्थिनो वरीयो यावया वधम् ॥३२॥

अर्थ- मनुष्य सब दिशाओं में सावधान रहकर दुराचारियों के फन्दों से बचें ॥३२॥

यावत्तेऽभि विपश्यामि भूमे सूर्येण मेदिना।

तावन्मे चक्षुर्मा मेष्टोत्तरामुत्तरां समाम् ॥३३॥

अर्थ- मनुष्य ऐसा प्रयत्न करें कि विद्यायत्नपूर्वक ईश्वर की अद्भुत रचनाओं से सदा उत्तम-उत्तम क्रियाएँ करते रहें, जैसे सूर्य प्रकाश आदि से उपकार करता है ॥३३॥

यच्छयानः पर्यावर्ते दक्षिणं सख्यमभि भूमे पार्श्वम्।

उत्तानास्त्वा प्रतीचीं यत्पृष्टीभिरधिशेमहे।

मा हिसीस्तत्र नो भूमे सर्वस्य प्रतिशीवरि ॥३४॥

अर्थ- जो मनुष्य पृथिवी को समचौरस बनाकर रहते हैं, वे सुख पाते हैं ॥३४॥

यत्ते भूमे विखनामि क्षिप्रं तदपि रोहतु।

मा ते मर्म विमृग्वरि मा ते हृदयमर्पिपम् ॥३५॥

अर्थ- भूतलविद्या और भूगर्भविद्या में चतुर लोग भूमि को उचित रीति से खोदकर और हल से जोतकर रत्न और अन्न आदि पदार्थ प्राप्त करें ॥३५॥

ग्रीष्मस्ते भूमे वर्षाणि शरद्धे॑मन्तः शिशिरो वसन्तः।

ऋतवस्ते विहिता हायनीरहोरात्रे पृथिवि नो दुहाताम् ॥३६॥

अर्थ- मनुष्यों को उचित है कि पृथिवी पर सब ऋतुओं में उचित कर्म करके पूर्ण आयु भागें ॥३६॥

याप सर्पं विजमाना विमृग्वरी यस्यामासन्नग्नयो ये अप्स्वन्तः।

परा दस्यून्ददती देवपीयूनिन्द्र वृणाना पृथिवी न वृत्रम्।

शक्राय दध्रे वृषभाय वृष्णे ॥३७॥

अर्थ- जो मनुष्य आगे की चलती हुई पृथिवी को खोजकर अपने भीतर पुरुषार्थरूप तेज धारण करते हैं, उन विघ्ननाशक वीरों के लिये यह पृथिवी सुखदायिनी और दुराचारी दुष्टों को दुःखदायिनी होती है ॥३७॥

यस्या सदोहविर्धाने यूपो यस्या निमीयते॑।

ब्रह्माणो यस्यामर्चन्त्यृग्भिः साम्ना यजुर्विदः।

युज्यन्ते यस्यामृत्विजः सोममिन्द्राय पातवे ॥३८॥

अर्थ- जिस भूमि पर जितेन्द्रिय वीर पुरुष शत्रुओं को जीतते हैं, और वेदज्ञानी, योगीन्द्र परमात्मा के तत्त्वज्ञान से मोक्ष आनन्द भोगते हैं, उस भूमि पर हम अपना इष्ट सिद्ध करें।

यस्यां पूर्वे भूतकृत ऋषयो गा उदानृचुः।

सप्त सत्रेण वेधसो यज्ञेन तपसा सह ॥३९॥

अर्थ- जिस भूमि पर मनुष्य अपने शरीर की इन्द्रियों द्वारा वेदज्ञान प्राप्त करके आत्मोन्नति करते हैं, उस भूमि पर हम पुरुषार्थ करके सुख प्राप्त करें ॥३९॥ यजुर्वेद ३४।५५। में वर्णन है−(सप्त ऋषयः प्रतिहिताः शरीरे) सात ऋषि अर्थात् शब्द आदि विषय को प्राप्त करनेवाले पाँच ज्ञानेन्द्रिय, मन और बुद्धि शरीर में प्रतीति के सात ठहरे हुए हैं ॥

सा नो भूमिरा दिशतु यद्धन कामयामहे।

भगो अनुप्रयुङ्क्तामिन्द्र एतु पुरोगवः ॥४०॥

अर्थ- मनुष्य पृथिवी पर वीर, महात्मा, ब्राह्मणों, योगियों के अनुकरण से वेदविद्या प्राप्त करके ऐश्वर्यवान् होकर अग्रगामी होवें ॥४०॥

यस्या गायन्ति नृत्यन्ति भूम्या मर्त्या व्यैलबाः।

युध्यन्ते यस्यामाक्रन्दो यस्या वदति दुन्दुभिः।

सा नो भूमिः प्रणुदतां सपत्नानसपत्न मा पृथिवी कृणोतु ॥४१॥

अर्थ- जिस पृथिवी पर मनुष्य ऊँचे, नीचे और मध्यम स्वर से गाते, नाचते और बाजे बजाकर युद्ध करते हैं, वहाँ पर धर्मात्मा लोग निर्विघ्न होकर सुख प्राप्त करें ॥४१॥

यस्यामन्नं व्रीहियवौ यस्या इमाः पञ्च कृष्टयः।

भूम्यै॑ पर्जन्यपत्न्यै नमोऽस्तु वर्षमे॑दसे ॥४२॥

अर्थ- मनुष्य पृथिवी के हित के लिये पृथिवी आदि पाँच तत्त्वों से उपकार लेकर अन्न आदि प्राप्त करें ॥४२॥

यस्याः पुरो देवकृताः क्षेत्रे यस्या विकुर्वते॑।

प्रजापतिः पृथिवीं विश्वगर्भामाशामाशा रण्या नः कृणोतु ॥४३॥

अर्थ- जिस भूमि पर धर्मात्मा पुरुष राजभवन, कार्यालय आदि बनाकर अनेक प्रकार से उन्नति के काम करते हैं और जिस में से अनेक रत्न उत्पन्न होते हैं, उस पर परमात्मा हमें धर्म में स्थिर रखकर सर्वत्र प्रसन्न रक्खे ॥४३॥

निधि बिभ्रती बहुधा गुहा वसु मणिं हिरण्य पृथिवी ददातु मे।

वसूनि नो वसुदा रासमाना देवी दधातु सुमनस्यमाना ॥४४॥

अर्थ- जो विद्वान् मनुष्य पृथिवी को खोजते हैं, वे खानों में से अनेक रत्न और सुवर्ण आदि पाकर प्रसन्नचित्त होते हैं ॥४४॥

जन बिभ्रती बहुधा विवाचस नानाधर्माणं पृथिवी यथौकसम्।

सहस्र धारा द्रविणस्य मे दुहा ध्रु॒वेव धेनुरनपस्फुरन्ती ॥४५॥

अर्थ- जैसे गौ अल्पमूल्य तृण आदि खाकर गोपाल की चतुराई के अनुसार बहुमूल्य दूध देती है, वैसे ही मनुष्य परिश्रम से अनेक विद्याएँ और अनेक गुण प्राप्त करके पृथिवी पर अपनी योग्यता के अनुसार बहुत प्रकार से धनवान् होवें ॥४५॥

यस्ते सर्पो वृश्चिकस्तृष्टदश्मा हेमन्तजब्धो भृमलो गुहा शये।

क्रिमिर्जिन्वत्पृथिवि यद्यदेजति प्रावृषि तन्नः

सर्पन्मोप सृपद्यच्छिव तेन नो मृड ॥४६॥

अर्थ- मनुष्य सदा सावधान रहें कि सब ऋतुओं में दुष्ट जीव-जन्तुओं से उन्हें क्लेश न होवे ॥४६॥

ये ते पन्थानो बहवो जनायना रथस्य वर्त्मानसश्च यातवे।

यैः सचरन्त्युभये॑ भद्रपापास्त पन्थान जयेमानमित्रमतस्कर यच्छिव तेन नो मृड ॥४७॥

अर्थ- जो मनुष्य पृथिवी पर ऊँचे-नीचे, भले-बुरे मार्गो का विचार करके सुमार्ग पर चलते हैं, वे कुमार्गियों से बचकर सदा सुखी रहते हैं ॥४७॥

मल्व बिभ्रती गुरुभृद्भद्रपापस्य निधन तितिक्षुः।

वराहेण पृथिवी सविदाना सूकराय वि जिहीते मृगाय ॥४८॥

अर्थ- पृथिवी अपने धारण आकर्षण से सब पदार्थों को अपने पर रखती है और सूर्य के सन्मुख चलने से जल आकाश में चढ़ता और बरसता है। उस पृथिवी को उपयोगी बनाने में मनुष्य प्रयत्न करें ॥४८॥

ये त आरण्याः पशवो मृगा वने हिताः सिंहा व्याघ्राः पुरुषादश्चरन्ति।

उल वृक पृथिवि दुच्छुनामित ऋक्षीकां रक्षो अप बाधयास्मत् ॥४९॥

अर्थ- मनुष्यों को उचित है कि हितकारी पशुओं की रक्षा करके हिंसक प्राणियों का नाश करें ॥४९॥

ये गन्धर्वा अप्सरसो ये चारायाः किमीदिनः।

पिशाचान्त्सर्वा रक्षासि तानस्मद्भूमे यावय ॥५०॥

अर्थ- विवेकी मनुष्यों को योग्य है कि पृथिवी पर के दुष्ट प्राणियों और रोगों का नाश करके धर्मात्माओं को सुखी रक्खें ॥५०॥

या द्विपादः पक्षिणः सपतन्ति हसाः सुपर्णाः शकुना वयासि।

यस्या वातो मातरिश्वेयते रजासि कृण्वंश्च्यावयश्च वृक्षान्।

वातस्य प्रवामुपवामनु वात्यर्चिः ॥५१॥

अर्थ- मनुष्य पक्षियों, वायु, मेघ, प्रकाश आदि के ज्ञान और गुणों से लाभ उठाकर आनन्दित होवें ॥५१॥

यस्या कृष्णमरुण च संहिते अहोरात्रे विहिते भूम्यामधि।

वर्षेण भूमिः पृथिवी वृतावृता सा नो दधातु भद्रया प्रिये धामनिधामनि ॥५२॥

अर्थ- ईश्वरनियम से जिस प्रकार दिन-राति मिले हुए हैं और पृथिवी मेघमण्डल से छायी है, वैसे ही मनुष्य पृथिवी पर उत्तम बुद्धि के साथ रहकर सब स्थानों में आनन्द करें ॥५२॥

द्यौश्च म इदं पृथिवी चान्तरिक्ष च मे व्यचः।

अग्निः सूर्य आपो मेधां विश्वे देवाश्च सं ददुः ॥५३॥

अर्थ- जो मनुष्य संसार के पदार्थों में विज्ञानपूर्वक फैलते चले जाते हैं, वे ही विज्ञानी बुद्धि बढ़ाकर संसार को सुख देते हैं ॥५३॥

अहमस्मि सहमान उत्तरो नाम भूम्याम्।

अभीषाडस्मि विश्वाषाडाशामाशां विषासहिः ॥५४॥

अर्थ- जब मनुष्य योग्यता प्राप्त करके आगे बढ़ता जाता है, तब संसार में कीर्ति बढ़ाकर सब में उच्च पद पाता है ॥५४॥

अदो यद्दे॑वि प्रथमाना पुरस्ताद्देवैरुक्ता व्यसर्पो महित्वम्।

आ त्वा सुभूतमविशत्तदानीमकल्पयथाः प्रदिशश्चतस्रः ॥५५॥

अर्थ- जब मनुष्य पृथिवी की विस्तृत महिमा को खोजते हुए आगे बढ़ते हैं, वे ऐश्वर्यवान् होकर सब दिशाओं से समर्थ होते हैं ॥५५॥

ये ग्रामा यदरण्यं याः सभा अधि भूम्याम्।

ये सं॑ग्रामाः समितयस्तेषु चारु वदेम ते ॥५६॥

अर्थ- मनुष्यों को उचित है कि सब स्थानों, सब अवस्थाओं और राजसभा, न्यायसभा, धर्मसभा आदि में पृथिवी के गुणों की महिमा जानकर और बखानकर देशभक्ति करें ॥५६॥

अश्व इव रजो॑ दुधुवे वि ताञ्जनान्य आक्षियन्पृथिवी यादजायत।

मन्द्राग्रेत्वरी भुवनस्य गोपा वनस्पती॑ना गृभिरोषधीनाम् ॥५७॥

अर्थ- जिन अभिमानियों ने पृथिवी पर अत्याचार करके मस्तक उठाया है, वे ईश्वरनियम से सदा नष्ट हुए हैं, जैसे घोड़ा थकावट उतारने को पृथिवी पर लोटकर शरीर की मलिन धूलि हिलाकर गिरा देता है ॥५७॥

यद्वदामि मधुमत्तद्वदामि यदीक्षे तद्वनन्ति मा।

त्विषी॑मानस्मि जूतिमानवान्यान्हन्मि दोधतः ॥५८॥

अर्थ- जो मनुष्य समझ-बूझकर बोलते, देखते और काम करते हैं, वे ईश्वरनियम से प्रतापी और फुरतीले होकर विघ्नों को मिटाते हैं ॥५८॥

शन्तिवा सुरभिः स्योना कीलालोध्नी पयस्वती।

भूमिरधि ब्रवीतु मे पृथिवी पयसा सह ॥१.५९॥

अर्थ- उद्योगी पुरुष परस्पर उपदेश करके पृथिवी से अनेक सुख प्राप्त करते और कराते हैं ॥५९॥

यामन्वैच्छद्धविषा विश्वकर्मान्तरर्णवे रजसि प्रविष्टाम्।

भुजिष्य पात्र निहित गुहा यदाविर्भोगे अभवन्मातृमद्भ्यः ॥६०॥

अर्थ- जैसे-जैसे मनुष्य मेघमण्डल से घिरी पृथिवी को खोजते जाते हैं, उसमें अधिक-अधिक पालनशक्तियों को पाते हैं, जैसे माताओं में प्राणियों के पालन के लिये दुग्ध प्रकट होता है ॥६०॥

त्वमस्यावपनी जनानामदितिः कामदुघा पप्रथाना।

यत्त ऊनं तत्त आ पूरयाति प्रजापतिः प्रथमजा ऋतस्य ॥६१॥

अर्थ- जैसे परमेश्वर ने पृथिवी में अन्न आदि से प्राणियों की पालन शक्ति दी है, वैसे ही प्राणी जो कुछ खाते-पीते हैं, वह न्यूनता ईश्वरनियम से वृष्टि आदि द्वारा पूर्ण हो जाती है ॥६१॥

उपस्थास्ते अनमीवा अयक्ष्मा अस्मभ्य सन्तु पृथिवि प्रसूताः।

दीर्घं न आयुः प्रतिबुध्यमाना वयं तुभ्य बलिहृतः स्याम ॥६२॥

अर्थ- मनुष्य प्रयत्नपूर्वक पृथिवी पर स्वस्थ और चेतन्य रहकर धर्म के साथ परस्पर पालन करें ॥६२॥

भूमे मातर्नि धेहि मा भद्रया सुप्रतिष्ठितम्।

सविदाना दिवा कवे श्रियां मा धेहि भूत्याम् ॥६३॥

अर्थ- जो मनुष्य उत्तम भाव से पृथिवी पर अपना कर्तव्य पालते हैं, वे बड़ी प्रतिष्ठा पाकर ऐश्वर्यवान् और श्रीमान् होते हैं ॥६३॥

|| इति पृथिवी सूक्तम् ॥